कहता दुशासन से-आवरण दे ये हटा,
नैन भर देखें नई, दासी के स्वरूप को।
कँपाया है कामना के, शीत ने बहुत बार,
हम भी तो सेंके इस, मीठी मीठी धूप को।
खोल उरु बोला बिठा, कर के वसन हीन,
अमृत-कलश मधु, सुधा-रस-कूप को।
कल तो सभी की प्यास, शीतल करेगी यह,
देख ले सभा भी इस, कामिनी के रूप को।। 34।।
लम्पट सुयोधन के, बोल क्रूर सर सम,
गिरते सभा में सारी, नीतियों से हट के।
अंग अंग जला रोम, रोम था सुलग उठा,
लगता था आज धरा, रहेगी ये फट के।
घायल फुंकारती थी, नागिन सी बार बार,
ऐसा लगता था डंस, लेगी ये पलट के।
जलते थे लाल लाल, लपटों से नेत्र-द्वय,
लज्जा से पितामह थे, रहे बस कट के।। 35।।
कहतेवचन कटु, शासन के पक्षधर,
राजा औ सभासदों की, गयी मति मारी है।
कटुता भरी है कैसी, शीतल हवाओं में भी,
पूनम की रजनी भी, हुई यहाँ कारी है।
गूंगे बहरे से सारे, ब्राह्मण पुरोहित हैं,
लगता है जैसे गयी, गुरु-धेनु मारी है।
रक्षक ही सारे आज, भक्षक बने हैं देखो,
कामी भेड़ियों में फंसी, अबला बिचारी है।। 36।।