बिखरी हुई है लट, फटा उत्तरीय-पट,
मसके वसन अस्त, व्यस्त सारा वेश है।
लज्जित सभा ये पाप, हीन कभी होगी नहीं,
भरा षड्यंत्र से ही, सारा परिवेश है।
कलुषित मन से है, छुआ जिन्हें पापियों ने,
माधव ! पुकारता ये,तुम्हे खुला केश है।
अपनी ही लज्जा जहाँ, दाँव पे लगाई जाती,
जानती नहीं मैं कृष्ण ! कैसा वह देश है।। 70।।
श्याम की भुजाएं सब, ही के लिये हैं सबल,
भार निज उन पे ही, रख रही द्रौपदी।
रही जो सदा से पात्र, स्नेह और मान की थी,
स्वाद अपमान का है, चख रही द्रौपदी।
मूर्धन्य क्षत्रियों में हैंजो अपने पराये,
सब का पराक्रम, परख रही द्रौपदी।
टूटता भरोसा आज, छूटती जाती है आस,
कातर अधीरा हो, बिलख रही द्रौपदी।। 71।।
हुई बून्द बून्द रस, सी परायी लाज जाती,
मुट्ठी से पकड़ पट, लाज को सँवारती।
नयन उठाती कभी, पलकें गिराती कभी,
द्रुपद-सुता की आज, सुने कौन आरती।
नन्द के दुलारे, रखवाले ब्रजवासियों के,
चरणतुम्हारेहैनयन-बिंदु वारती।
श्याम श्याम साँवरे सलोने राधिका के प्रिय,
गोपियों के प्यारे तुम्हे, द्रौपदी पुकारती।। 72