माता की थी आयसु या, विधि का इशारा था वो,
जिस ने बनाया 'वस्तु', जीवित ही नारी को।
धर्म का था संकट, हा विपदा पड़ी थी कैसी,
पाँच भाइयों ने बाँट, लिया था बिचारी को।
मोहरा बनाया उसे, मात्र राजनीति का था,
प्रश्रय दिया था तुम, ने भी अविचारी को।
धर्मराज को अधर्म, करते न रोका तब,
रोक कैसे पाओगे अधम अत्याचारी को।। 79।।
टुकड़ों में बाँटी गयी, अबला की लाज जब,
तब मन मेरा यह, जार-जार रोया था।
आँचल हटाया जब, जब किसी भाई ने था,
चुनरी का मेरी हर, तार तार रोया था।
टूटा अंग तड़पा था, मेरा रोम रोम सदा,
व्याकुल विवश तन, हार हार रोया था।
तुम ने कहा तो उसे, मान लिया धर्म किन्तु,
बिलख बिलख मन, बार बार रोया था।। 80।।
लिखता है विधि हस्त-रेखाओं में भाग्य इसी,
हेतु वाल्मीकि को पड़ा, था 'मरा' रटना।
तड़िता के कौंधने से, गगन फटा न कभी,
पड़ता धरा को उस, से है नित फटना।
रोष हो छुरी का या कि, दोष खरबूजे का हो,
पड़ता उसे ही हर, हाल में है कटना।
नारी को चबेना जान, माता ने था बाँट दिया,
पांच भाइयों के बीच, पड़ा मुझे बंटना।। 81।।