उसी घाव को कुरेद, रहा आज कर्ण यह,
चाहता है कौरवों के, बीच बंट जाऊँ मैं।
पाँच पतियों की प्रिया, बन के रही हूँ जैसे,
आज शत कौरवों की, रक्षिता कहाऊँ मैं।
बीत रही आज तन, मन पे जो पीर महा,
जीभ कटती है कैसे, तुम को बताऊँ मैं।
फँसी विषधरों बीच, नागों की ही बाँबी में हूँ,
वीर मेरे कैसे लाज, अपनी बचाऊँ मैं।। 82।।
कहने की बात नहीं, भाई से ये होती किन्तु,
बेबसी में आज मुझे, पड़ता है कहना।
सरिता को झरनों को, सिंधु को पवन सम,
नारी के नयन को भी, पड़ता है बहना।
पत्थरों सा धीरज औ, धधकी चिता सा उर,
वसुधा सी पीड़ा बोझ, पड़ता है सहना।
सहती समाज हित, राज्य हित चाहे जो भी,
चाहती है नारी बन, एक की ही रहना।।83।।
चलने से मिलती हैं, मंजिलें सभी को यहाँ,
भटकी हुई न पर, राह जान पाओगे।
यत्न करने से इस, जगती के दुखियों की,
आतुर तड़पती कराह जान पाओगे।
सुनो यदुनाथ ! नाथ, जग के भले हो किन्तु,
नारी के हृदय की न, चाह जान पाओगे।
माप लोगे सिन्धु की गहनता को चाहे किन्तु
अबला के मन की न, थाह जान पाओगे।। 84।।