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द्रुपद सुता-खण्ड-36 / रंजना वर्मा

हुआ करता था कभी, पानी का महत्त्व पर,
अस्मिता की कीमत ही,आज नहीं होती है।
आँचल तले है नहीं, लहरा ममत्व-सिन्धु,
पलकें झुका ले ऐसी, लाज नहीं होती है।
मानना न चाहे कोई, स्वत्व की सशक्तता को,
छिलकों के नीचे कहीं, प्याज नहीं होती है।
ऐसी ही वसनमयी, बन गयी द्रौपदी थी,
शक्ति मोहताज किसी, की भी नहीं होती है।। 106।।

द्रौपदी के नेत्र लाल, दहक रहा है भाल,
तीसरा नयन जैसे खोले त्रिपुरारी है।
कीर्ति कौमुदी थी शुद्ध, चाँदनी सी कौरवों की,
घोर अभिमान की घिरी ये अँधियारी है।
खींच खींच थकते हैं, हाथ है शिथिल बाँह,
लगता है तीनों लोक, ने बुनी ये सारी है।
खींच नहीं पाया पट, मन में भरा कपट,
सोचता है कैसी अनहोनी हुई भारी है।। 107

द्रौपदी नहीं थी वह, पाण्डु की या कुरु-वधु,
रानी भी नहीं थी वह मात्र एक नारी थी।
कोई भी महानता हो, पद की समाज की या,
गौरव या गरिमा की, तन्द्रा भी न तारी थी।
उस क्षण राजपुत्रि, थी न किसी राजा की वो,
शक्ति से सबल निज, एक सुकुमारी थी।
चकित सभी की दृष्टि, देख रही बार बार,
नारी थी कहाँ वहाँ लहर रही सारी थी।। 108।।