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द्वंद्व / नवनीता देवसेन

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एक बार मेरी ओर निगाहें उठाकर देखो
मैं तुम्हारी आँखों के भीतर थोड़ा-सा हँसूँ।
उस हँसी की दुलार से काँप उठे
काँप उठीं तुम्हारी आँखें
तुम्हारी आँखें शर्माएँ
काँपूँ मैं रोऊँ, खड़ी रहूँ।
तुम्हारी ही तरह एकाकी, व्याप्त
सहस्र आँखों, सहस्र भुजाओं
अनादि, अनन्त, अजर
अपना अस्तित्व लेकर हर पल लीलायित
मैं
तुम्हारी अनोखी अनिवार्य साथी।

ऊपर नीचे सामने पीछे सभी ओर खुला-खुला-सा है
जिस वक़्त ख़ुद समय ही छलने लगता है
वही तो होता है इच्छाओं का लग्न।
मैं आई हूँ अब तुम भी आगे बढ़ना
ग़ुस्सा मत होना, मत करना त्याग, उम्मीद भी नहीं
तुम सिर्फ़ देखना
मेरे निर्मल आकाश में है तुम्हारी सुनहली धूप
डरना मत, मत जीतना, छलना भी नहीं
तुम सिर्फ़ देखना
तुम्हारी ही तरह उजले और निर्मम
अहंकारी और मायावी
पवित्र और करुण आँखों के अरण्य में
तुम सावन की बारिश की तरह देखो
देखो भैरवी स्वप्न की तरह
वैरागी मृत्यु की तरह
निश्चित
और सोचो कि तुम मेरे लिए हो
बारिश मेरे लिए है, बकुल मेरे लिए, फ़सलें मेरे लिए
सोचो कि दुःस्वप्न मेरे हैं, मेरे हैं नैवेद्य, चेतना मेरी
और मैं तब तुम्हारी हो जाऊँ
तुम
मेरी गोद के शिशु बन कर मेरा वरण करो
हर लो मुझे
मुझे पूर्णता दो।

  
मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी