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द्वन्द्व प्रणय / सुमित्रानंदन पंत

धिक रे मनुष्य, तुम स्वच्छ, स्वस्थ, निश्छल चुंबन
अंकित कर सकते नहीं प्रिया के अधरों पर?
मन में लज्जित, जन से शंकित, चुपके गोपन
तुम प्रेम प्रकट करते हो नारी से, कायर!
क्या गुह्य, क्षुद्र ही बना रहेगा, बुद्धिमान!
नर नारी का स्वाभाविक, स्वर्गिक आकर्षण?
क्या मिल न सकेंगे प्राणों से प्रेमार्त प्राण
ज्यों मिलते सुरभि समीर, कुसुम अलि, लहर किरण?
क्या क्षुधा तृषा औ’ स्वप्न जागरण सा सुन्दर
है नहीं काम भी नैसर्गिक, जीवन द्योतक?
बन जाता अमृत न देह-गरल छू प्रेम-अधर?
उज्वल करता न प्रणय सुवर्ण, तन का पावक?

पशु पक्षी से फिर सीखो प्रणय कला, मानव!
जो आदि जीव, जीवन संस्कारों से प्रेरित,
खग युग्म गान गा करते मधुर प्रणय अनुभव,
मृग मिथुन शृंग से अंगो को कर मृदु मर्दित!
मत कहो मांस की दुर्बलता, हे जीव प्रवर!
है पुण्य तीर्थ नर नारी जन का हृदय मिलन,
आनंदित होओ, गर्वित, यह जीवन का वर,
गौरव दो द्वन्द्व प्रणय को, पृथ्वी हो पावन!

रचनाकाल: दिसंबर’ ३९