राग जोगिया, तीन ताल
द्वारे ठाड़्यौ एक भिखारी।
जनम-जनम की प्यास दरस की, दिन-दिन रहत दुखारी॥
पौरी पर्यौ बहुत दिन बीते, भई न कृपा तिहारी।
प्यासहि में बहु जनम बिताये, मिल्यौ न दरसन-वारो<ref>दर्शनरूपी जल</ref>॥1॥
ओ होती कछु प्रीति चरन में तो कर तो कछु रारो।
लगी विषय-रस-ईति प्रानधन! करों कहा गिरिधारी!॥2॥
ज्यों फल झरे जाय उड़ि पंछी पाय सघन कोउ झारी।
पंखहीन पै मीन जाय कित सूखे जब सर-वारी॥3॥
त्यों ही जिनहिं होत साधन-बल, तिन की चरिचा न्यारी।
मोसे साधनहीन दीनकों तुम बिनु को हितकारी॥4॥
है केवल अवलम्ब कृपा को, आयो सरन तिहारी।
हो निरबल के बल मनमोहन! यही आस उर भारी॥5॥
निरबल निज जन जानि आपुनो करिहो कृपा मुरारी!
यही आस-विस्वास लिये हौं पौरी पर्यौ तिहारी॥6॥
शब्दार्थ
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