द्वार पर ताला जड़ा था
सीढ़ियाँ सूनी
हवाओं के थपेड़ों से
तार-तार हो गयी पताका
गल कर झर गयी थी
शिखर पर जो चमकता था दंड
जर्जर हो चला था
सभी कुछ पर छा गयी थी धूल
सब कुछ खिर रहा था।
किन्तु वह करता रहा अन्दर प्रतीक्षा
कोई आये-उसे फिर से
देवता कर दे।
काश ! अपने आप को
पत्थर न करता वह
काश ! उग आता
फोड़ कर पत्थर को
इस पीपल की डाली की तरह।
(1981)