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धरती-३ / ओम पुरोहित ‘कागद’

धरती
करती विलाप
चली भी जाए
अकल में
दूर
कहां है पांव ?
बेचारी
इसी चिंता में
पड़ी पड़ी
झुलस गई !

अनुवाद-अंकिता पुरोहित "कागदांश"