धरती
कब करती श्रृंगार
बारम्बार
पड़ती रही
अकल की मार
अब
सोई है
अंतहीन
मौन धार
मन मार !
अनुवाद-अंकिता पुरोहित "कागदांश"
धरती
कब करती श्रृंगार
बारम्बार
पड़ती रही
अकल की मार
अब
सोई है
अंतहीन
मौन धार
मन मार !
अनुवाद-अंकिता पुरोहित "कागदांश"