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धरती की पुकार / महेन्द्र भटनागर


उट्ठो युवको !
धरती तुम से जीवन माँग रही है !
जीवन तुमको देना होगा,
फिर चाहे
मोटी-मोटी हरियाली की लोई में
मुँह ढक कर सो जाना,
खेतों-खलिहानों के
अथवा
गेहूँ-चावल के
सपनों में खो जाना !

पर, आज अभी तो
जगना होगा,
पीली-पीली लपटों में
तपना होगा,
आगे-आगे
लम्बे-लम्बे क़दमों को
रखना होगा,
पथ के काँटों की नोकों को
फ़ौलादी पैरों की रेती से
घिसना होगा !

आओ युवको !
धरती तुमसे धड़कन माँग रही है !
बदले में जितनी चाहो तुम
उसकी ज्वाला ले सकते हो,
पर, अपने प्राणों की धड़कन
उसमें भरनी होगी !
यदि मृत्युंजय बनकर रहना है,
यदि निर्भय
अन्तर की बातें कहना है,
तो इस क्षण
अपने से ऊपर उठना होगा
फिर चाहे
हँसती दुनिया की तसवीर
बनाने में जुट जाना,
भूखों-नंगों को
अपनी बाहों में भर लाना !: