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धरती सुगर्भा-सी / कैलाश मनहर

किसी रोते हुए कवि की आत्मा का
एकान्त ढूँढ़ता हूँ मैं
जहाँ अपनी इच्छाओं के बीज रोप सकूँ
आँखों की तरह.....

मेरे रोपे हुए सपनों की फ़सल काटेंगी
आने वाली पीढ़ियाँ और उस वक़्त
किसी कविता की आँख से टपक गया यदि
एक भी आँसू
तो युगों-युगों तक उर्वरा बनी रहेगी
यह धरती सुगर्भा-सी....

भटकना ही है मुझे निरन्तर
किसी रोते हुए कवि की आत्मा के लिए
मैं तुम्हारे पास भी आऊँगा
किसी एक दिन
तुम भी तो रोओगे मित्र
धरती के दुःख में पिघलते
हिमालय-से....