Last modified on 13 सितम्बर 2016, at 21:39

धरती से भारी / आरती मिश्रा

वह एक क़दम धरती से भी भारी था
वही क़दम, आगे बढ़ाते हुए
मैंने वादा किया था ख़ुद से
पीछे मुडक़र नहीं देखूँगी

इस एक वाक्य में बैठे शब्दों को
दुरुस्त करती रही
किसी मंत्र सा सोते जागते बुदबुदाती रही
वह देहरी जिसे पार किया
और इरादे-वादे पक्के किए
उन दीवारों पर छपे अपने हाथों के छाप
उन लिपियों पर लीपापोती करती

वैसे तो क़दम मैं आगे ही आगे बढ़ाती चली
यह आगे बढऩा कई अर्थों में धरती के सापेक्ष था
जैसे वह आगे बढ़ती है
निरन्तर घूमती रहती है
और घूमते हुए धुरी पर लौटती है फिर... फिर...

मेरी नज़रें समय को नाप रही थीं
क़दम आगे बढ़ रहे थे
मेरा घूर्णन धरती जैसा नियत न था
एक पल भी पर्याप्त था धुरी में वापसी के लिए
मेरा लौटना मुझ तक पहुँचनेवाली सूचनाओं से परे था

मैं लौटती कभी मुट्ठीभर नींद सोकर
तो कभी हवा का एक झोंका उड़ा ले जाता सालों पीछे
मैं लौटती उन्नीसवीं सालगिरह में कभी
तो कभी सीधे फिसलकर किसी सदी के मुहाने में जा खड़ी होती
मैं लौटती उन अदेखी गुफाओं में
जिनकी छाती में आग उगी थी पहली बार
उँगलियों की उन सिहरनों में मेरा लौटना होता
जिनकी पोरों में प्रेम की लहरें उमगती थीं

अक्षरों से अनजान वे
कोई भाषा और लिपि उनके हिस्से में नहीं आई
अपनी ओर खींच-खींच लाने वाली वह छुअन
जो भाषा जानती तो यही कहती
लौटना पीछे होना नहीं होता
जैसे दौडऩा आगे निकल जाना