है धरा के ज्योतिहीन
किसको ढूँढ़ रहा है तू
गगन की उंचाईयों में
सागर की गहराइयों में
मस्जिद और मन्दिरों में
न मिला है
न मिलेगा कभी
भजन,पूजन
साधना,आराधना करनी है तो
कर मानवता की
वह तो मानवता की मला में है
या फिर तेरे मन-मन्दिर में
तेरे भीतर अंतर-आत्मा तेरी
स्वयं तेरा परमात्मा है।