कुटिलमना गौतम हर्षित था छल का जाल बिछाकर।
निज समान कपटी पंचों को ले आया वह सत्वर।
तरंगिणी का तट पुनीत वट की शीतल छाया थी।
मन्द-मन्द बह रहा पवन उल्लसित प्रकृति माया थी।
वट के नीचे हुए सुशोभित पंच उच्च आसन पर।
और सामने ही बैठे मणिकुण्डल गौतम आकार।
नैयायिक थे कहाँ पंच तो छद्मवेश धारी थे।
मणिकुण्डल के लिए दुष्ट दुर्भाव द्वेष धारी थे।
मणिकुण्डल को ज्ञात नहीं था गौतम में छल बल है।
दूषित अन्तःकरण घोर इसका न रंच उज्ज्वल है।
प्रस्तुत करें पक्ष अपना-अपना नैयायिक बोले।
मुखर हुआ ज्यों कालनेमि वाणी में अमरत घोले।
गौतम बोला सुने महात्मन! पहले मैं कहता हूँ।
जीर्ण-शीर्ण हो चले धर्म में मैं न कभी बहता हूँ।
धर्म घोर दुख का कारण है, दुख न कभी देता है।
देता है दारिद्रय अकथ सुख चैन छीन लेता है।
नहीं-नहीं श्रीमान धर्म ही धरती का धारक है।
अक्षय कोश शान्ति सुख का दुख का तो संहारक है।
धर्म धरा का चिर सहचर है और प्रकाश परम है।
जीर्ण-शीर्ण है नहीं, अमर है, चिर नवीन अनुपम है।
जीवन का आधार हमारा धर्म एक सम्बल है।
इसके सिवा कहाँ धरती पर जीवन हुआ सफल हैं?
मणिकुण्डल! यह कथन बहुत श्रुतिमधुर और पावन है।
किन्तु पुराना है विचार अब अप्रासंगिक धन है।
बेटा! हम सब पंचों ने मिलकर यह शोध किया है।
इसीलिए इस जीर्ण धर्म का घोर विरोध किया है।
गौतम का विचार नूतन है और प्रगतिवादी है।
और प्रगति से विमुख धर्म जो रटता अतिवादी है।
अतः न्याय गौतम के हक में हम घोषित करते हैं।
न्याय-कुम्भ को नूतन गौरव गरिमा से भरते हैं।
मणिकुण्डल अविचल अवाक् निर्भीक और निश्छल था।
न्याय-देवता के मुख से झर रहा अघर्म गरल था।
अर्थ समर्थित न्यायालय नित सत्य जहाँ वंचित है।
उन्नत है अन्याय आज भी विवश न्याय बंधित है।
मौन हो गया सत्य एक क्षण सत्यव्रती-मणिकुण्डल।
किन्तु नहीं विचलित था रंचक शान्त-कान्तअतिउज्जवल।
सत्य-पंथ का मणिकुण्डल बन गया परीक्षार्थी था।
छला जा रहा था जिससे दसका ही परमार्थी था।
हर्षित होकर दिया रत्न धन उसने सब गौतम को।
किन्तु नहीं छोड़ा स्वधर्म के पावन पथ-उत्तम को।
साधु हृदय मक्खन से कोमल और मधुर होता है।
पर सेवा का भाव अपरिमित उसके उर होता है।
वे अपने आचरणों से ही परिवर्तन करते हैं।
शान्ति हृदय में और जनमनों में सुख संचरते हैं।
ठगा गया फिरभी उसमें सम्बल न सत्य का कम था।
मणिकुण्डल धनहीन हो गया गौतम को यह भ्रम था।
गौतम बोला मणिकुण्डल! अब सत्य धर्म जप छोड़ो।
अपने जीवन की सारी बाधाओं को तुम तोड़ों।
नहीं सखे! यह धन केवल जीवन धन पूर्ण नहीं है।
बिना धर्म के भला शन्ति पावन भी मिला कहाँ है?
सत्य कह रहा हूँ में अब भी धर्म सुखें का घर है।
नहीं धर्म के सिवा कहीं भी होती ठीक बसर है।
यही धर्म ईश्वर है, जो जीवन को पूर्ण बनाता।
यही धर्म है जो जीवन में जीवन ज्योति जगाता।
सत्य-धर्म के बिना जिन्दगी हो जाती है भारी।
चलती रहती है ग्रीवा पर भव बाधा की आरी।
और रेशमी वैभव के जो परदे लटक रहे हैं।
चकाचैंध में उनकी हरपल हमसब भटक रहे हैं।
अरे वैश्य! सबकुछ खोकर भी जिद न अभीतक छोड़ी।
तू ने पंचों के पवित्र निर्णय की गरिमा तोड़ी।
अब भी धर्म-धर्म की माला बैठा फेर रहा है।
पीड़ाओं से हरपल हरक्षण खुद को घेर रहा है।
अरे! धर्म दुख का कारण है क्यों न मान लेता है?
मुड़ा हुआ सिर व्यर्थ ओखली में तू क्यों देता है?
क्या तुझको भय नहीं रंच भी सत्यधर्म देता है?
जो तेरा सारा धन वैभव क्षण में हर लेता है।
वैभव का गुणगान छोड़ तू व्यर्थ कहा करता है।
दुख-दर्दों की कठिन धार में कहाँ बहा करता है?
चेत मूढ़! अन्यथा भयंकर पीड़ाएँ पायेगा।
बिना मृत्यु के तू पथ पर घुट-घुटकर मर जायेगा।
धर्म-पंथ के पथिक मृत्यु का गरल पिया करते हैं।
किन्तु भोग भौतिक अधर्म में नहीं जिया करते हैं।
उन्हें अमरपुर का भी वैभव तृण-समान लगता है।
जाने क्यों असार यह सारा भव मसान लगता है।
वे अधर्म का अमरत भी पीते न कभी जीवन में।
और सत्य हित कुम्भ हलाहल पी जाते हैं क्षण में।
मित्र! भले ही तुम कितने अभिनव उपाय कर डालो।
सत्य-धर्म के न्याय-हेतु कितने ही पंथ निकालो।
किन्तु न कथन टलेगा तिलभर अब इस मणिकुण्डल का।
होगा नहीं विवर्ण रोम भी सत्य धर्म उज्ज्वल का।
एक तरफ है दोष, प्रबल गुणवत्ता एक तरफ है।
एक तरफ है झूठ, सत्य की सत्ता एक तरफ है।
ज्वाला तो जलती है पलभर फिर अदृश्य होती है।
किन्तु राख ही प्रखर अग्नि की आयु सदा ढ़ोती है।
इसी तरह भौतिक वैभव भी कुछ दिन सुख देता है।
फिर पीड़म्बुधि में ढ़केल कर शान्ति छीन लेता है।
वैभव के सोपान ढहा देता है सब क्षणभर में।
अग्निपिण्ड बस रह जाते हैं अन्यायी के कर में।
नहीं उसे सम्मान, घोर अपमान दान मिलता है।
अधरों पर मृदु हास नहीं अगंार-कुसुम खिलता है।
धूल बना देता है उसको माटी का आकर्षण।
विवश सहा करता है हर पल विषय अग्नि का वर्षण।
अरे! लुटा-सा विवश नहीं कुछ भी वह कर पाता है।
धिक्-धिक् करता हाय! हर घड़ी रोता पछताता है।
नयी शर्त के साथ कपट-छल प्रबल हो उठा मन में।
गौतम ने बाँधा मणिकुण्डल को नूतन बन्धन में।
मणिकुण्डल! इस बार विजय पर दोनों कर काटूँगा।
और अगर तुम जीत गये तो अपने कर दे दूँगा।
मणिकुण्डल का हुआ समुन्नत और आत्मबल भारी।
पुनः परीक्षा के हित उसने कर ली थी तैयारी।
सत्य-धर्म की रक्षा में धन गया करों की बारी।
किन्तु न उसने प्रण बदला की नहीं प्रकट लाचारी।
नैयायिक अति कुटिल पूर्ववत् दुष्ट-दुराचारी थे।
गौतम के प्रिय सखा घोर अन्यायी कुविचारी थे।
अरे! लोभ ने फिर अधर्म को धर्म सिद्ध करवाया।
धर्म घोर दुख का कारण है, पुनः यही कहलाया।
कटवाये फिर हाथ दुष्ट गौतम ने मणिकुण्डल के।
काँप उठा आकाश, धरा के दृग असंख्य थे छलके।
कर्म और कर से विहीन वह विवश और दुर्बल था।
सत्य-धर्म का किन्तु हृदय में उसके दृढ़ सम्बल था।
मणिकुण्डल बोला सत्पथ पर चलाना सदाचरण है।
सखे! धर्म ही इस धरती पर हर सुख का कारण है।
वेदों का यह कथन, प्रवर-ऋषियों का आप्त वचन है।
सत्य-धर्म ही मानवता का आभूषण पावन है।
प्राणों का उत्सर्ग धर्म की रक्षा का मनुज-मुकुट कहलाये।
तो सचमुच मानव धरती का मनुज-मुकुट कहलाये।
अगर धर्म की रक्षा हो तो सिर भी कटवाऊँगा।
पर अधर्म की शरण प्राण रहते न कभी जाऊँगा।
अरे! हठी मणिकुण्डल! तुझको नहीं प्राण का भय है?
नहीं दिखायी देता कितना सत्य-धर्म निर्दय है?
धन-वैभव से हीन किया फिर दोनों कर कटवाये।
धर्माशक्ति किन्तु तेरे मन में अब तक लहराये।
अरे! मूर्ख! यदि अभी नहीं तू ठीक समझ पायेगा।
तो वह दिन भी दूर नहीं जब सिर भी कटवायेगा।
गौतम! तू ने सत्य-धर्म की शक्ति नहीं जानी है।
भटक रहा हर पल अधर्म में कैसी नादनी है?
मित्र! काल का निर्णय कुछ विलम्ब से ही होता है।
किन्तू दूध है दूध और पानी, पानी होता है।
नहीं काल के आगे कुछ मिथ्यावाचन चलता है।
वहाँ सत्य का दीपक ही हरपल अखण्ड जलता है।
तुम भी कुछ प्रकाश को अपने उर में संचित कर लो।
सहज प्रेम के शुभ्र मौक्तिक मन-मंदिर में भर लो।
बस-बस कर उपदेश न मुझको और चाहिए तेरा।
अब तृतीय धर्माभियोग है अन्तिम तेरा-मेरा।
नैयायिक इस बार प्रखर मर्मज्ञ ढूढ़ लाऊँगा।
और धर्म के कटु विवाद का निर्णय करवाऊँगा।
अग्नि पंथ के पथिक प्राण का मोह नहीं करते हैं।
महामृत्यु की छाया में चलते न कभी डरते है।
चाहे जितने और चला धर्माभियोग तू मुझपर।
धर्म सकल सुख का कारण है कथन अटल है अक्षर।
सुन लो किंचित् भी परिर्वतन इसमें हो न सकेगा।
मणिकुण्डल अन्तिम साँसों तक धर्म न छोड़ सकेगा।
गौतम ने सोचा अब भी यदि जीवित मित्र बचेगा।
दण्ड मृत्यु का तो मुझ अपराधी को कठिन मिलेगा।
अच्छा होगा कपट-चाल से मार मित्र को डालूँ।
और इसी के धन वैभव से जीवन सुख से पालूँ।
कर विचार गौतम ने कपटी नैयायिक बुलवाये।
और सभी निर्णय अपने इच्छित ही थे करवाये।
नहीं धर्म का शीश कटा पर युग-दृग गये निकाले।
रहे सिसकते सत्य-धर्म मणिकुण्डल के रखवाले।
करते भी क्या विवश पूर्वकृत कर्म-भोग बाकी था।
पूर्ण हो गया आज, धम्र अब शक्ति सहित साथी था।
गौतम तो धन रत्न ले उड़ा माया की नगरी को।
रहा पाप से भरता प्रतिक्षण जीवन की गगरी को।
जबतक भरता नहीं-नहीं पाप का घृणितपात्र अतिकाला।
तब तक वैभव-मदिरा पीकर नर रहता मतवाला।
जब कुकर्म की अन्तिम सीढ़ी तक नर चढ़ जाता है।
फिर गिरता है अश्रुधार में कठिन दण्ड पाता है।
एकाकी निरुपाय निराश्रित व्याकुल मणिकुण्डल है।
दृष्टि और कर हीन-दीन धन से विहीन निर्बल है।
अशरण-शरण धर्म ही उसका एक मात्र सम्बल है।
"रक्ष-रक्ष हे धर्म" यही बस कहता पल प्रतिपल है।
धर्म! क्यों नहीं तुम मेरी रक्षा करते हो आकार?
या फिर निकलें प्राण सकल पीड़ा मिट जाये सत्वर।
धर्म! तुम्हीं बस जीवन-पथ के पर मेरे चिरसहचर हो।
रक्षा करते नहीं आप क्यों रहे दूर से डर हो?
धर्म! तुम्हीं पर किया निछावर मैंने तन-मन सारा।
धर्म! तुम्हीं आखिर क्यों करते मुझसे आज किनारा?
धर्म! अगर अपराध पूर्वकृत कोई शेष रहा हो।
मैं तो हूँ अबोध फल पाना यदि कुछ और रहा हो।
तो पहले उस पीड़ा को ही मुझे भोग लेने दो।
यदि न तृप्त हो अभी प्राण चरणों पर रख लेने दो।
अगर जन्म देना मुझको फिर से इस वसुन्धरा पर।
तो देना सद्भाव धर्म की ज्योति जगाऊँ घर-घर।
चरणों पर हे चिर नवीन! सम्पूर्ण समर्पण कर दूँ।
आओ मेरे धर्म! शेष तन-मन का अपर्ण कर दूँ।