देख रहा है दिशा स्रोत की
उठ उठ कर धारा का जल।
कहती धारा—“बंधु रसिकवर,
सोच न कर, बस बहता चल।”
“धारा, दिशा-स्रोत की राधा,
मेरी रसवत्सल माता।
राधावर का वेणु-नाद-स्वर
आदि बिंदु में लहराता।”
“सुन सागर का शंख-घोष, जल,
बुला रहा है तुझे अतल।”
धारा के नीचे ला पटका,
अगन ले उड़ी अंबर में,
धारा का जल, बादल बनकर,
बरसा गिरिप्रांतर घर में,
स्रोत-गोत्र जल भुला न पाता,
आस्था दृढ़, पर मन चंचल!
“धरा और न कुछ, मेरे ही
विपर्यास की अठखेली।
ज्यों ही मिली अधोगति, मैंने
वृत्ति तपस्वी की ले ली।”—
आवागमन-लीन जल बोला,
“मैं राधा का नीलांचल!”