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धुँआ (16) / हरबिन्दर सिंह गिल

यह धुआं एक जहरीली गैस है
जो कर देती है, अंधा मनुष्य को
उन नेत्रों को नहीं
जिससे वह देखता है, यह झूठा संसार ।
ले लेता हैं, रोशनी उन आंखों की
जो करती हैं, उजाला उसकी आत्मा में ।

इसलिए आंखों के होते हुए भी
वह अंधों की तरह दुनिया में चल रहा है
भागा जा रहा है, अंधाधुंध
भीड़ के पीछे स्वर्ग की चाह में
जो कह रहे हैं और भाग रहे हैं
इन्ही धुऐं के बादलों के पीछे
आ गया है दरवाजा जन्नत का ।

जब जाकर खटखटाता है
आती है आवाज उसे
ओ पागल तू क्यों भागा इतनी दूर
स्वर्ग का दरवाजा इन बादलों के पीछे नहीं है
यहां तो नगर है, शैतान का ।

मैं तो तेरे अंदर हूँ
खोल कर देख उन आंखो से
जिस पर जहर चढ़ा है, धुऐं का ।

कितनी विषैली गैस है, यह धुआं
पूछ कर देखो, उसे अपनी अंधी आत्मा से ।