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धुँआ (29) / हरबिन्दर सिंह गिल

यदि कोई यह कहे कि यह धुआं
धर्म को निखारता है
मैं इसे मानने को तैयार नहीं
क्योंकि यह कोई जलप्रपात से उठता
मनमोहक प्राकृतिक धुआं नहीं है
यह तो धर्म पर लगा दाग है ।

यदि कोई यह कहे कि यह धुआं
धर्म ग्रंथ की ओढ़नी है
मैं इसे मानने को तैयार नहीं
क्योकि यह नीले अंबर में
तारों से सजी प्राकृतिक चादर नहीं
यह तो धर्म पर लगे
मानवता के खून के धब्बे है ।

यदि कोई यह कहें कि यह धुआं
धर्म गुरूओं की देन है
मै इसे मानने का तैयार नहीं
क्योंकि यह कोई गंगा से बहता
पवित्रता से भरा प्राकृतिक जल नहीं है
यह तो धर्म के नाम पर बहती गंदगी है ।