Last modified on 8 फ़रवरी 2013, at 09:23

धुँआ (40) / हरबिन्दर सिंह गिल

मैं कैसे भूल सकता हूँ
इस धुएँ के घाव को
जिसने मेरे मात-पिता
मेरे भाई-बहिन
और ऐसे ही लाखों परिवारों को
चाहे वो सीमा के इस पार हों
या आज रहते हों उस पार
रख दिया था बनाकर घर से बेघर ।

घर बहुत है मुश्किल बनाना
इसलिए देश बनाने की चाह में
बसे घरों को मत उजाड़ो ।

धुँआ तो घरों को
उजाड़ने के लिए ही बना है
इसे अपने स्वार्थो को बसाने के लिए
कभी मत देना कोई-बुलावा
वरना ब्रम्हांड में मानव नहीं, मानवता नहीं
सिर्फ धुँआ ही धुँआ रहेगा, भूत के बसेरों का ।