झीने चिलमन की तरह, किसी शीशा-ए-शबनम की तरह
फिर जग गयी है धुन्धली सुबह, चश्म-ए-पुरनम की तरह
फिर जग गए दर्द-ए-ज़ीस्त, उठ गए ज़ख्म-ए-सवाल
के मुन्तज़िर हैं तपिश-ए-आफताब के, मरहम की तरह
फिर ख़ाक ने रुख मोड़ा, आफताब ने बादलों का पहरा तोड़ा
नूर बिखरा, किरण औ ख़ाक एक हुए रंगों के संगम की तरह
राहें हो गयीं हैं परेशान, पर चलते जाना है मुक़ाम
फिर ढलेगा ग़म-ए-दिन, भी शब्-ए-ग़म की तरह
कभी ओस बनके, कभी बर्फ से हुए, कभी सब्ज़, कभी ज़र्द,
कभी धुंआ बन के दिखाएँ हैं नए रंग नए मौसम की तरह
यहाँ ताले नहीं है, दरवाज़े नहीं है, दीवारें नहीं है,
वक़्त की ज़मीं है, और हम गिरफ़्ता मुजरिम की तरह