धुन्धुवाता अलाव, चौतरफ़ा मोढ़ा मचिया
पड़े गुड़गुड़ाते हुक्का कुछ खींच मिरजई
बाबा बोले लख अकास : 'अब मटर भी गई'
देखा सिर पर नीम फाँक में से कचपकिया
डबडबा गई-सी, कँपती पत्तियाँ टहनियाँ
लपटों की आभा में तरु की उभरी छाया ।
पकते गुड़ की गरम गंध ले सहसा आया
मीठा झोंका। 'आह, हो गई कैसी दुनिया !
सिकमी पर दस गुना।' सुना फिर था वही गला
सबने गुपचुप गुना, किसी ने कुछ नहीं कहा ।
चूँ-चूँ बस कोल्हू की; लोहे से नहीं सहा
गया। चिलम फिर चढ़ी, ख़ैर, यह पूस तो चला...'
पूरा वाक्य न हुआ कि आया खरतर झोंका
धधक उठा कौड़ा, पुआल में कुत्ता भोंका।