Last modified on 28 जून 2020, at 18:15

धुआँ / शिवनारायण जौहरी 'विमल'

आधुनिक परिवेश में
पुराने और नए प्रशनों के
मनमाने उत्तर
खारोंचे जा रहे
भर जाता है मन, मस्तिष्क में
रंध्रों से निकलता है धुआँ
कौन सच है कौन झूठा
कौन जाने कौन समझे

रात के खंडहर से
नीले पटल पर फूटती चिंगारी
फैल जाती है दिग्दिग्न्तों
में जन्म लेता है
क्या अंधेरे में डूब कर
श्रीहीन हो जाता है उजाला॥