Last modified on 28 फ़रवरी 2009, at 01:15

धुआँ / सौरभ

एक

धुँध भरी शाम है
धुआँ उड़ा रहा हूँ
धुआँ हो जाऊँगा इक दिन
कितना अपना लग रहा है
धुआँ
जो फैल के धुँध हो गया।


दो

सर्दयों की शाम है
बर्फ पड़ रही है
मैं सेंक रहा हूँ आग
लकड़ियों से उठ रहा है धुआँ
जो शायद भीगी हैं आँसुओं से
कुछ सूखी सूखी को
शान से जला रही है आग
क्या मैं भी इसी शान से
जा पाऊँगा।

तीन

बीज से पौधा, फिर पेड़
मुरझा के बनती सूखी लकड़ी
जो जल रही अब अलाव में
धुआँ ऊपर उठ रहा है
निगोड़ी राख है धूल चाट रही।

चार

सूखी घास और लकड़ी
समेट कर ले जाते गडरिये
उधर,
श्मशान को ले जाया जा रहा मुर्दा
बकरियाँ चबा रही हैं हरी घास
दिमागों में छाई है भनभनाहट
शाम हुई
सूखा सामान अग्नि की भेंट हुआ
अपने-अपने ठिकाने पे
धू-धू कर जल उठा सब सामान।

पाँच

गीली लकड़ी
चूल्हे में पकाती खाना
या फूँकती मुर्दे को
छोड़ती है चुभने वाला
धुआँ।