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जय प्रथम परमेश पर गुरु, दुतिय दुस्तर-तारन।
तृतिय त्रिगुण-रहित कथित चित, चौथ चेतु चतुर्भुज।
पँचये परमानंद पूरन, छठयँ छोरन-बंधन॥
सप्तमे सुमिरहु सदाशिव, अष्टमे अघ खंडन।
नवमें नारायण, निरंजन, दसयें दुर्गति-नाशन॥
एकादस एक सर्व-व्यापक द्वादशे दुख-मोचन।
त्रयोदशे भु लोक-नायक, चौदसे चक्रायुध।
पन्द्रहें पदमासन भजु, षोडशे खल-खंडन।
सत्रहँ संतन शिरोमणि, अठारहे अविनाशिनं॥
उनइसें उर-अंतरे भाजु, वीसयें विश्वंभर।
सुचित चित करि उचित करि उचित भरि भरि रुचित मन वच कर्मन॥1॥