है गलाव की ठण्ड
खिंची रौनक गरमाई की ।
हाड़-गोड़ ठिर गए
भरक उड़ गई रजाई की ।
कैसी-कैसी यादें कूकें
इस उजाड़ मन में ।
प्राणवती हो व्यापीं
ख़ाली घर के कण-कण में ।
जगह न कोई शेष बची है
धरा-उठाई की ।
एक किटकिटी-सी दाँतों में
बजती रुक-रुक कर ।
यह आवाज़ कहाँ से आती
देखें झुक-झुक कर ।
कान बजें, देती न सुनाई
धुन तनहाई की ।
बीज सृजन के जिन्हें
ऐशगाहों में पड़े मिले ।
बड़भागे हैं,उन्हें सेंत के
मिल तो गए सिले ।
बीती यहाँ, साधने में ही
लय चौपाई की ।