Last modified on 12 अप्रैल 2012, at 13:07

धूप-2 / अरविन्द चतुर्वेद

मैं देख रहा था
सड़क पर
ऊँची इमारत के बाजू से
किसी तरह छलक कर
बमुश्किल उतरा
धूप का एक तिकोना टुकड़ा ।

इतने में
सिपाही का भारी-भरकम बूट
जो उस पर पड़ा
तो मैं सिहर गया भीतर तक
मुझे ठंड-सी लगी
मेरा शरीर काँप-सा गया