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धूप और बादल / कविता वाचक्नवी

धूप और बादल

खंड-खंड मन हुआ धूप का
जब-जब बादल ने आ घेरा
कोई मन का टुकडा़
अटका है देहरी पर
कोई गली मुहाने के पत्थर पर ठहरा
किसी पेड़ की फूलों वाली डाली पर लिपटा है कोई
कोई चिड़ियों के पैरों के नीचे दुबका
कोई नागफनी की झाड़ी भी सहलाता
सूरज को आँखें दिखलाए
गारे में फट-फट करते पैरों के मुख पर
हँसता कोई।