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धूप बरसो, खूब बरसो / अमरेन्द्र

धूप बरसो, खूब बरसो!
बून्द भर को प्राण तरसो ।

सिर्फ छाया में चलो क्या
आग पर भी सीख चलना,
साथ सूरज के चलो फिर
बर्फ पर पीछे मचलना;
टीस का आनन्द कुछ है
वह न समझे, जो न घायल,
गर्म रेतों में हवा भी
नाचती है पहन पायल ।
इसलिए तो कह रहा हूँµ
जेठ आओ, और सरसो !

जी लिया रस, गंध, सुर को
चैत ने सब कुछ दिया है,
क्या कोई वैसा जीएगा
जिस तरह मैंने जिया है;
अब यही है चाह मेरी
आग अपने पर सजाऊँ !
जो न अब तक गा सका था
राग दीपक झूम गाऊँ !
क्रुद्ध शिव के नेत्रा से जो
ज्वाल निकले, ज्वाल परसो।