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धूप में औरत / रोहित ठाकुर

धूप सबकी होती है
धूप में खड़ी औरत
बस यही सोचती है
पर उसे तो जीवन - काल में
संतुलन बनाए रखना है
अपनी इच्छाओं और वृहत्तर संसार के बीच
इस लिये औरत धूप में
बिल्कुल सीधी खड़ी होती है
मार्क्स की व्याख्या में
औरत सर्वहारा होती है
इस युग की धूप औरत के लिये नहीं है
पर धूप में खड़ी औरत यह नहीं जानती है
वह तो सीधी खड़ी होकर
किसी और के हिस्से की
धूप को बचाना चाहती है
किसी और के हिस्से की धूप को बचाती औरत
की परछाई दिवार पर सीधी पड़ती है
दिवार पर औरत की सीधी पड़ती परछाई
दूर से घंटाघर की घड़ी की सुई की तरह लगती है
और पास से सारस की गर्दन की तरह
पर धूप में खड़ी औरत यह नहीं जानती है ।।