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धूप में चमकती पटरियां / राजेन्द्र उपाध्याय

इस वक्त
रेल की पटरियाँ धूप सेंक रही है
इस वक़्त वे हवा में सुस्ता रही है
और इस वक़्त तो गजब
वे बारिश में उछल उछलकर नहा रही है।
बहुत दिन बाद नसीब हुआ उन्हें यह स्नान

देखो तो सही एक कौआ बारबार बेखौफ
पटरियों पर उछलकूद कर रहा है।
और एक बिल्ली पटरियों पर ऊंघ रही है।

मुझे डर है
कहीं मोर नाचने न लग जाए इन पटरियों पर
जो सोई हुई है इस वक्त
लगभग शवासन में लेटी हुई
बिल्कुल बेजान उनके भीतर कोई हरकत नहीं
उनकी नाड़ी को छुओ वहाँ धड़कन भी नहीं है।
हे ईश्वर!
इन पटरियों की नब्ज नहीं चल रही है
मैं जब आया था इन बेजान पटरियों में हरकत थी
इन पर से अभी-अभी एक शताब्दी गुज़री थी
अब चौबीस घंटे तक कोई रेल इन पर दस्तक नहीं देगी।
अब चौबीस घंटे तक इन पटरियों में कोई हरकत नहीं होगी।
अब ये सो जाएगी कुंभकर्पी नींद!
मैं आया था जिस रेल से
उसी से फिर जाऊंगा
आज नहीं
कल नहीं
भले ही बरसों बाद
या कि युगो बाद भी!
जाऊंगा उसी रेल से
जिससे आया था।