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धूप में बूढ़ियाँ / तुलसी रमण


बूढियों के भीतर
लुका-छिपी खेलती हैं
कुलाँचे भरती
उनकी उल्लासमयी जवानियाँ
कसी हुई देहें खिले चेहरे
पहले पहल जब देखा था
मरद का मुँह
दोनो हाथों से ढक ली थीं
अपनी उत्सुक आँखें
फिर कई-कई शादियों के किस्से
कौन-सा मरद कैसा था मुआ
भावुक कौन था
कौन कपटी और हर तरह निकम्मा

फिर एक के बाद एक
टंगते रहे पालने
पीढ़ियों की धड़कनों में गूँजती रही लोरियाँ
बहुत सारी बधाईयाँ अनगिनत शोक
कुछ गिरी बिजलियाँ
भूकम्प और हिमपात हुए
अकाल पड़े कुछ फसलें भी काटीं
जी भर के बतियाती
अपने अतीत को
                  तापती बूढ़ियाँ

चाहे आँख से बस देखा जाए__
   बहुत अच्छा है संसार :
           सुंदर छींट का ढाठू
अपनी बची तमाम ताकत से
दोनो हाथों पकड़ रखतीं नींद में भी
इसका आखरी किनारा

बात-बात पर बदलते चेहरे के भाव
कुछ ऐसी सुंदर हैं बूढ़ियाँ
जैसा कोई सौन्दर्य नहीं

दूर से दिखाई देते बूढियों के मुँह
                  हँसती गुफाएँ

ख़ूब चमकते धूप में
                धवल केश

बूढियाँ :
बर्फ़ से ढकी चोटियाँ
                              दिसंबर 1990