कवितायें संसद के
हर बलात्कार के बाद
पैदा हुई उस संतान की तरह हैं
जिसे जिंदगी भर अपने
बाप की तलाश रहती है
और माँ को उसके
गुनाहगार की !
गोष्ठियों ,सम्मेलनों और न्यायालयों से
होती हुई जब ये कवितायें
संसद में बहस के लिए रखी जाती है
तो सारी संसद मौन हो जाती है !
वक्क्तव्यों और विचारों के धुल कचरे
झाड कर फ़ेंक दिए जाते है
दिमाग जकड जाता है
उंगलियाँ अकड़ जाती हैं
और इसीलिए कवितायें;
एक सार्थक वक्तव्य होते हुए भी
निरर्थक गवाही हैं !