धूल भरी दोपहरी
धरती के कण-कण में गूँजी आकुल-सी स्वर-लहरी ।
सरल पल आते-जाते
करुण सिकता भर लाते
एक मूर्च्छना-सी प्राणों पर बेमाने बरसाते
अलसता होती गहरी ।
मधुर अनमनी उदासी
एक धूमिल रेखा-सी--
छाई है; बहता जाता है पवन अरुक संन्यासी
कौन देश की ठहरी ?
आ कर यों चल दिए कहाँ ओ जग के चंचल प्रहरी ?
धूल भरी दोपहरी ।
(1937 में बरुआसागर में रचित)