बाज़ों की बस्ती में
धैर्य का कपोत फँसा
गली-गली अट्टहास
कर रहे बहलिए।
तर्कों की-
गौरेया,
इधर-उधर दौड़ती,
दर्पण से-
लड़ा-लड़ा
स्वयं चोंच तोड़ती।
आस्थाएँ नीड़ों में
पंख फड़फड़ा रहीं,
आँगन के रिश्ते तक हो
गए दुभाषिये।
संयम का
सुआ रोज़,
पिंजड़े से लड़ रहा,
'राम नाम'-
के पथ पर
इंकलाब जड़ रहा।
किसको है ख़बर,
क्रौंच सच का क्यों मर रहा?
बिना पता घूम रहे
मौसम के डाकिये।