अपनी
अपने लोगों की
अपनी तरह की दुनिया
अपने ढंग से बनाने के लिए
अपनी तरह से
कितनी दुनियाओं को उजाड़ते हैं!
एक ऐसी दुनिया के लिए
जिसकी कि अभी कोई शक्ल नहीं
भरी-पूरी, बसी-बसाई दुनिया
किस कदर बेशक़्ल होती जाती हैं!
ज़िन्दगियाँ वहाँ ख़त्म की जाती हैं
जहाँ कि ज़िन्दगी की आरजू की जाती है
और वहाँ भी
कि जहाँ से ज़रा बचकर
निकलना चाहते हैं
ज़िन्दगी का सामान जुटाने की
जद्दोजहद करते
मेवाराम, हरनाम सिंह, रमजान मियाँ...
काश कि यह दुनिया ऐसी होती,
इतनी साफ़-सुथरी और सेहतमंद जगह
कि न कोई यहाँ अस्पताल होता
न कूड़ेदान
न ज़िन्दगी के धोखे में
मौत का और कोई सामान!
(दिल्ली में आतंकी हमला - 13 सितम्बर, 2008)