धौरी आसों हुई न गाभिन-
उड़द-मूँग में फली न आई,
घर-आँगन के कचनारों में
मौसम रहते कली न आई।
कब आएँगे फिर अचार-पापड़ वाले दिन?
तीर्थ-जलों को ले जाते काँवड़ वाले दिन,
कब आएँगे-
चौतरफा से खबरें आईं,
किंतु एक भी भली न आईं।
दृश्य सुखों में हुई न शामिल लोनी सूरत,
धरे रह गए पोथी-पत्रे धरे रह गए लगुन महूरत;
खुले रखे खिड़की-द्वारे सब
किंतु हवा मनचली न आई।
हमसे हुए न पीर, न हमसे हुए पयंबर,
चलने को प्रतिश्रुत हम चलते रहे निरंतर;
जनधारा में धकिया दे जो,
ऐसी कोई गली न आई।
धौरी आसों हुई न गाभिन
उड़द-मूँग में फली न आई।
घर-आँगन के कचनारों में
मौसम रहते कली न आई।