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धौल या धुँइयाँ / महेश चंद्र पुनेठा

नहीं पता मुझे इसका वैज्ञानिक नाम
यह भी नहीं पता कि
क्या कहते हैं इसको मानक हिंदी में

कहीं धौल कहीं धुँइयाँ
पुकारते हैं इसे ग्वाले-घस्यारियाँ-लकड़हारिनें
पूछो इसके बारे में तो
धूप-धूप हो आता है उनका चेहरा
शहद उतर आता है बोली में

बताते हैं—
मौ भौत होता है इसके भीतर
मौन ख़ूब आते हैं इसके पास
इसके झुरमुटों में बैठे-बैठे
रस चूसते हुए
भौत मज़ा आता है

घस्यारियाँ कहती हैं -
बकरियाँ खाती हैं इसकी पत्तियों को
बड़े चाव से
बड़ा गरम होता है सौत्तर भी इसका

इसकी लकड़ी में आग होती है भरपूर
बताती हैं लकड़हारिनें
बुरूँश के पड़ोस में ही खिला है धुँइयाँ
ऊपर-ऊपर बुरूँश नीचे धुँइयाँ

धौलिमा फैली है पूरी घाटी में
उतर आया हो जैसे
गोधूलि का आसमान
बुरूँश जितने बड़े व रक्ताभ न सही
पर कम नहीं सौंदर्य इनका भी
खिलते हैं जब अपने पूरे समूह के साथ।

पता नहीं क्यों
किसी कविता में खिल न पाया
किसी चित्र में ढल न पाया
किसी ने किया नहीं कैद अपने कैमरे में इसे ।