जेठ की धूप में तपी हुई
आषाढ़ की फुहारों में भीगकर
कार्तिक और अगहन के फूलों को पार करती हुई
यह घूमती हुई पृथ्वी
आज सामने आ गयी है
नये साल की देहरी के
तीन सौ पैंसठ जंगलों
तीन सौ पैंसठ नदियों
तीन सौ पैंसठ दुर्गम घाटियों को पार करने के बाद
आज यह घूमती हुई पृथ्वी
यह पृथ्वी
टहनी से टपका एक ताजा पका फल
लुढ़ककर आ गया है साबुत
अभी-अभी लिपे हुए आंगन में
प्रथम दिवस की चौखट के सामने
तीन सौ पैंसठ पत्थरों से बचकर
न जाने कितने लोगों का भय रेंग रहा है इस पर
न जाने कितने नगरों-गावों का रक्त
बह रहा है अभी भी
न जाने कितनी चीखों से
दहल गयी है यह पृथ्वी
ऐसे मे कितना सुखद है यह देखना
कि तीन सौ पैंसठ घावों से भरी यह पृथ्वी
आज जब सामने आयी है
नये साल के प्रथम दिवस की चौखट के
इसके माथे पर चमक रहा है नया सूर्य
इसकी नदियों का जल
हमारे जनों के हाथों में
अर्ध्य के लिए उठा है सूर्य की ओर
और ठीक वहीं
जहां पिछले अंधेरों को पार करने के बाद
ठिठकी खड़ी है यह पृथ्वी
दिन की टहनियों पर
फूले हैं गुड़हल के फूल.