तुम्हारी देह
मुझ को कनक-चम्पे की कली है
दूर ही से स्मरण में भी गन्ध देती है।
(रूप स्पर्शातीत वह जिस की लुनाई
कुहासे-सी चेतना को मोह ले)
तुम्हारे नैन
पहले भोर की दो ओस-बूँदें हैं
अछूती, ज्योतिमय, भीतर द्रवित।
(मानो विधाता के हृदय में
जग गयी हो भाप करुणा की अपरिमित।)
तुम्हारे ओठ-
पर उसे दहकते दाडि़म-पुहुप को
मूक तकता रह सकूँ मैं-
(सह सकूँ मैं
ताप ऊष्मा का मुझे जो लील लेती है!)
दिल्ली, 26 नवम्बर, 1952