कहीं कोई संगति नहीं, बसंत नहीं
फिर भी सड़के धूल भरी यात्रा में खोजती हुईं
छांह के लिए एक कोना
कोई रंग नहीं भरा गया
उस ख़ाली केनवास पर
और वह चला गया बग़ैर जूतों के
हम उलझे पथिक लौट रहे हैं
घरों में दुबकी शांति के लिए
सारे पेड़ों ने कपड़े उतार लिए हैं
और हम उनकी नग्नता में देखते हैं
कैसे सारी चिड़ियां उनसे मिलने आती हैं
और ढंक लेती है अपने भारी भरकम थैली सरीखे गोल पेट को
कुछ अधपीली पपड़ायी पत्तियों के भीतर
किसी दिन हमारी नींद में
फड़फड़ाते हैं कुछ टूटे स्वप्न
और हम अपने चेहरों से
उतार फेंकते हैं रात के सारे तज़र््ांमें
सिर्फ़ कोयले ही बिना रंगे रह गए
जलने के बाद
प्रेम ही बचा रहा
तमाम नाक़ाम विचारों के बावजूद
हर चीज़ अपनी नग्नता में
अपना सच छोड़ जाती है.