एक ऋषि के गोदान की कथा है
एक बालक भक्त की व्यथा है
पिता के क्रोध भय के बाद भी
पिता की प्रन्नता की कामना
पितृभक्ति की पराकष्ठा
कुल में अपार निष्ठां
उस नचिकेता को भी तुम नहीं जानते
वाजश्रवस-वाजश्रवा के पुत्र उद्दालक
भक्त? दानी और प्रजापालक
विश्वजीत यज्ञ के प्रतिपालक
गायो का दान चल रहा था
नचिकेता के भीतर सवाल पल रहा था
विनय पूर्वक पिता से किया प्रश्न
मैं भी आपका धन हूँ किसे करेंगे दान
झुंझलाये पिता का अभिमान
मुँह से निकला मृत्यु को
नचिकेता इसी जवाब के लिए आकुल थे
पिता की व्यथा से व्याकुल थे
हो गए यमलोक जाने को तत्पर
बोले -
पिताजी ! शरीर नश्वर है,
सदाचरण सर्वोपरि है
आप अपने वचन की रक्षा कीजिये
यम सदन जाने की
आज्ञा दीजिये
वचन निभाने की मजबूरी
पुत्र की यमलोक यात्रा बहुत जरुरी
नचिकेता ने पिता के चरणों में
सभक्ति किया प्रणाम
पहुंचे याम के धाम
तीन रत का उपवास
यमराज का था कही और प्रवास
जब याम आये तो स्वयं
काँप गए
ब्राह्मणकुमार की पितृ भक्ति भाप गए
सामने पड़ा अग्नितुल्य तेजस्वी ऋषिकुमार
तीन रात्रियाँ उपवास में बिता दीं,
यह मेरा अपराध है
आप तीन वर मांगिये? अब यही साध है
तब बोले ऋषिकुमार
'मृत्यो ! मेरे पिता
मेरे प्रति शान्त-संकल्प,
प्रसन्नचित्त और क्रोधरहित हो जाएँ
जब मैं आपके यहाँ से लौटकर घर जाऊँ,
तब वे मुझे पहचानकर प्रेमपूर्वक अपनायें
पितृभक्त बालक ने प्रथम वर माँगा
यम ने तथास्तु कहा और दूसरे की कर दी चाह
बोले फिर ऋषिकुमार
मृत्यो ! स्वर्ग के साधनभूत अग्नि को
आप भलीभाँति जानते हैं
उसे ही जानकर लोग स्वर्ग में
अमृतत्त्व-देवत्व को मानते हैं
आप मुझे भी बताइये
वह तत्व समझाइये
तब याम ने सुनाया
अग्नि को अनन्त स्वर्ग-लोक
की प्राप्ति का साधन बताया
विराट रूप से जगत् की प्रतिष्ठा का
यही है आधार
आचार्यो की मेधा और ऋतम्भरा का
यही है मूलाधार
हे नचिकेता, अब तीसरा वर माँगिये
यमलोक की हर सीमा को लाँघिये
आत्मतत्व जानने की थी
बालक भक्त की जिज्ञासा
दुरूह ज्ञान के लिए
नन्ही सी आशा
बहुत गहरी थी यह प्यास
यम को भी सूझी आस
मृत्यु के देवता को देते सुना
अमरता की परिभाषा
अद्भुत यह अभिलाषा
यम के फूटे बोल तो अमृत बरस गया
नचिकेता बन पाने को देवलोक तरस गया
आत्मा चेतन है
वह न जन्मता है
न मरता है
न यह किसी से उत्पन्न हुआ है
न कोई दूसरा ही इससे उत्पन्न हुआ है
वह अजन्मा है?
नित्य है,
शाश्वत है,
सनातन है,
शरीर के नाश होने पर भी
बना रहता है
सूक्ष्म-से -सूक्ष्म
महान् से भी महान्
समस्त अनित्य शरीर में रहते हुए भी
शरीररहित
समस्त अस्थिर पदार्थों में
व्याप्त
फिर भी सदा स्थिर
कण-कण में व्याप्त
सारा सृष्टि क्रम
उसी के आदेश पर चलता है
अग्नि उसी के भय से चलता है,
सूर्य उसी के भय से तपता है,
इन्द्र, वायु और पाँचवाँ मृत्यु
उसी के भय से दौड़ते हैं
जो पुरुष
काल के गाल में जाने के पूर्व
उसे जान लेते हैं,
वे मुक्त हो जाते हैं
शोकादि क्लेशों को पार कर
परमानन्द को प्राप्त कर लेते हैं ।'
वह न तो वेद के प्रवचन से प्राप्त होता है,
न विशाल बुद्धि से मिलता है
न केवल जन्मभर
शास्त्रों के श्रवण से ही
वह उन्हीं को प्राप्त होता है,
जिनकी वासनाएँ शान्त हो चुकी हैं,
कामनाएँ मिट चुकी हैं
जिनके पवित्र अन्त:करण को
मलिनता की छाया भी स्पर्श नहीं कर पाती
जो उसे पाने के लिए
अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं
इसी ज्ञान को साधक पाते हैं
तुमने कौन सी साधना की
किसका किया उद्धार
कैसे उतरे मृत्युलोक के पार
यही है तुम्हारे ज्ञान पर संदेह
पूजी गयी तुम्हारी देह
मैं उसी भ्रमजाल से जूझ रही हूँ
नचिकेता को देखती हूँ
खुद से करती हूँ प्रश्न
हाँ सिद्धार्थ
यशोधरा ही बोल रही हूँ।