तो मैं साबुत नज़र आ रहा हूँ आपको।
कृपया आप अपनी आँखों से
मुझे अपने को देखने दें
देखने दें किस तरह टुकड़ा-टुकड़ा हुआ आदमी
नज़र आता है साबुत।
कृपया मुझे बताएँ
यदि मैं साबुत हूँ
तो अपने को टुकड़ा-टुकड़ा हुआ
क्यों समझ रहा हूँ।
देखो-- यह मेरा हृदय है
पर इसमें प्रेम कहीं नहीं है
इसका धड़कना
जीवन का प्रमाण नहीं
विवशता है।
यह मेरा मस्तिष्क है
इसने स्वतन्त्रता से सोचना छोड़ दिया है,
यह वही सोच रहा है
जो न जाने किस के हित में है।
यह मेरा मन है
इसने इच्छा करना छोड़ दिया है,
यह अपनी जगह तय नहीं कर पाया है
इसीलिए भटक रहा है।
आँखें ज़रूर कुछ देखने का अभिनय कर रही हैं
पर वे वही देख रही हैं
जो उन्हें दिखाया जा रहा है
यही बात कानों के बारे में भी
कही जा सकती है।
कहने को तो ख़ून गरम होना चाहिए,
पर देखो,
कितना ठण्डा पड़ा है।
शरीर के अन्य अंगों के बारे में भी
कम-अधिक यही कहा जा सकता है।
एक साबुत आदमी के साथ
ऎसा कुछ भी तो नहीं होना चाहिए।
फिर आप कहते हैं
कि मैं साबुत नज़र आ रहा हूँ।