नज़र लग गई है
शायद आशीष दुआओं को
रिश्ते खोज रहे हैं अपनी
चची, बुआओं को
नज़रों के आगे फैले बंजर, पठार हैं
डोली की एवज अरथी ढोते कहार हैं
चलो कबीरा घाटों पर स्नान ध्यान कर-
लौटा दें हम महज शाब्दिक
सभी कृपाओं को
सगुन हुए जाते ये निर्गुन ताने-बाने
घूम रहे हैं जाने किस भ्रम में भरमाने?
पड़े हुये क्यों माया ठगिनी के चक्कर में
पाल रहे हैं-
बड़े चाव से हम कुब्जाओं को
रहे न छायादार रूख घर, खेतों, जंगल
भरने को भरते बैठे घट अब भी मंगल
नदियां सूख रही
अंतस बाहर की सारी-
सूखा रोग लग गया शायद सभी प्रथाओं को।