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नज़्म-उम्मीद /वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

न सही पास दूर निकलेगा
कोई रस्ता ज़रूर निकलेगा
खुल के चमकेगा आफ़ताब ज़रूर
बादलों का ग़ुरूर निकलेगा

आज बेशक हैं आँख में आँसू
कल मगर होंठ मुस्कुरायेंगे
आज दुश्मन सही ये रोज़ो-शब
कल मगर दोस्ती निभायेंगे

नाउमीदी को पाल कर दिल में
किस लिए ख़ुद पे ज़ुल्म ढाता है
बीती बातों को याद कर कर के
दर्द की उम्र क्यों बढ़ाता है

उजड़े वन में बहार आयेगी
राह तेरी भी जगमगायेगी
तीरगी पल में सब फ़ना होगी
शब ढले ऐसा नूर निकलेगा
बादलों का ग़ुरूर निकलेगा
एक दिन वक़्त तेरे स्वागत को
लेके जन्नत की हूर निकलेगा