सावन-घन
मल्हार गा गए
फागुन
चैत असाढ़
गा गए
जेठ-दुपहरी में
झुलसे मन
भादों का
भर प्यार
पा गए
पावस की
पहली अंगड़ाई
में कृश दूब
जवान हो गई
अब तक थी
जो सतत् उपेक्षित
वह
वसुधा का
मान हो गई
जिन घन को
तरसे थी अब तक
वे
घर-आंगन
द्वार आ गए
अंधेरे की
नट्टिन ने
जब
नभ में
निज पायल
झनकाई
काम ने
चोट नगाड़े
पर ही
दादुर ने
फूंकी शहनाई
फिर-फिर
विरह-विकल
करने को
वन-वन मोर
पुकार पा गए
रोम-रोम
सरिता
बन लहकी
आशा ऋतु
बदली
बन बहकी
प्राणों में
पिउ-पिउ
समा गया
सांसों में
गंधि-सुधि
महकी
सोए नद
उमड़े
संयम के
तट पर
ज्वार-समान
छा गए