72.
सुमिरु मन केवल कर्त्ता-राम।टेक।
भजिले भक्त-वछल निर्भय पद, दुरु करु दुर्मति खाम॥
घोर वटोर निशान वान जग, धवल धौरहर धाम।
सुत वनिता परिजन धन जँह तँह, अंत न ऐहै काम॥
ब्रह्मादिक सुर नर मुनि सुमिरेँ, निशि दिन आठो याम।
युग युग संतनने यश गाओ, विविध विमल विश्राम॥
तजि प्रभुता-जड़ता मद ममता, होहु गरीब गुलाम।
धरनी परम पियास दरसकी, पुनि 2 करत सलाम॥16॥
73.
कर्त्ता राम करै सो होय।टेक।
कल बल छल बुधि ज्ञान सयानप, कोटि करै जो कोय॥
देई देवा सेवा करिके, भर्म भुलै नर लोय।
आवत जात मरत और जनमत, कर्म काठ अरुझोय॥
काह भवन तजि भेस बनाओ, ममता मैल न धोय।
मन को गरब ताहि नहि तोरो, आस फाँस नहि छोय॥
सत गुरु चरन शरन सच पाओ, अपनी देह विलोय।
धरनी धरनि फिरत जेहि कारन, धरहिँ मिले प्रभु सोय॥2॥
74.
प्रभु जी अब जनि मोहि विसरो।टेक।
अशरन शरन अधम जन तारन, युग युग विरुद्ध तिहारो॥
जँह जहँ जन्म कर्म-वश पापयो, तँह अरुघेरस खारो।
पाँचहुके परपंच भुलानो, धरैयो न ध्यान अधारो॥
अंध गरम दस मास निरंतर नख शिख सुरति सँवारो।
मज्जा मूतट अग्नि मल कृमि जंह, सहज तहाँ प्रतिपारो॥
दीजै दरस दयाल दया करि, गुन अवगुन न विचारो।
धरनी भजि आओ शरनागति, तजि लज्जा कुल गारो॥3॥
75.
अजहुँ मन शब्द प्रतीति न आई।टेक।
चंचल चपल चहूँ दिशि डोले, तजत नहीं चतुराई।
शब्दहिंते शुक शरद नारद, गोरख की गुरुआई॥
शब्द प्रतीति कबीर नामदेव, जगत जबत दोहाई।
सदन धना रविदास चतुर्भुज, नानक मीरा वाई॥
संत अनंत प्रतीति शब्द की, प्रगट परम गति पाई।
धरनी जो जन शब्द-सनेही, मोहि वरनि नहि जाई॥4॥
76.
अधर विनु काहु नहीं गति पाओ।टेक।
अधर अधार भये धु्रव निश्चल, जन प्रह्लाद बचाओ॥
अधर नामदेव पैज पुराओ, जयदेव रथहिं चढ़ाओ।
अधर अधार कबीर कृपा करि, भोजन सोजन दाओ॥
अधरते गोरखनाथ मर्थरी, शुक मुनि योग कमाओ।
पीपा सेना सदना नरहरि, निरखि परखि परखि गुन गाओ॥
अधरते व्यास वसिष्ठ अजामिल, पतित अनेक सिधाओ।
धरनी समुझि अधर अवलम्वित, शरन शरन गोहराओ॥5॥
77.
जौलों मन तत्त्व नहीं पकरै।टेक।
तो लगि कुमति केवार न छूटै, दया नहीं अधरेँ।
काहे तीरथ वरत भटकि भ्रमि, थाकि थाकि थहरै।
मंडप मस्जिद मुरति सुरति करि धोखेहिँ ध्यान धरै॥
काह अन्त तजि वनफल तोरै, क्या पचि अनल वरै।
काहे वल करि जलपर सोवै, भुईं खनि खंध परै॥
दान विधान पुतान सुनै नित, तो नहि काज सरै।
धरनी भव-जल तत्त्व ना वरी, चढ़ि-चढ़ि भक्त तरै॥6॥
78.
वासन कौन करै वरियाई।टेक।
जापर राम-कृपा को तंतू, औरकि कौन वसाई॥
जगमेँ रहत जगतते न्यारे, तजे कपट चतुराई।
चतुँ युग भजन भक्ति मर्यादा, वहु अगतिन गति पाई॥
जो सुख देय सदा सुख पावै, दुख बाढ़ै दुखदाई।
जँह जँह भक्त कियो परतिज्ञा, तँह तँह पेज पुराई॥
दासमँे वास विश्वंभर जी को, अनत मरे कित धाई।
धरनी दास तासु जन बलि बलि, प्रेम भक्ति जँह छाई॥7॥
79.
करहु न कम नयन सन नेहो।टेक।
तब लाग काह न करत भजन जड़, जब लगि डोलत देहो॥
भूले भरम कहा धन वनिता, योवन पै गरबे हो।
घर वन राम काम नहि ऐहै, ऊँच धवल धुँअ गेहो॥
कर्म फांस परपंच पाँव वश, जनम जनम मरते हो।
एक बार जीवत मरि जातो, तो रवि-सुत डरते हो॥
सत गुरु शब्द आंक आनन मेँ, राधन जौ करते हो।
सहज सुभाव कहै धरनीजन, काल मृगा मरते हो॥8॥
80.
गुरू कहावत जगत घना। टेक।
बहुत बहुत गुरु करत चतुराई, साँचो मारग विरल जना॥
बालक विद्या गुरू पढावत, सर्व सिखावत सो गनना।
हल ग्राहत चाहत शिक्षा सिखि, शँका भार धरि सिर अपना॥
पद दुइ चारि नारि गर बाँधे, लोक बुझावत मुख मंडना।
कोउ उन लागि जगत परबोधे, ता नट को कौतुक देखना॥
परम तत्त्व परिचय मा जाके, तृष्णा तामस परिहरना।
जीव सकल दुविधा नहि जाने, धरनी ता गुरू की शरना॥9॥