Last modified on 30 जून 2014, at 03:50

नदी-घाट / प्रेमशंकर शुक्ल

पसरी चट्टानों पर कपड़े सूख रहे हैं
नहान-स्‍नान में डूबे नर-नारी
नदी को पवित्र कर रहे हैं अपने श्रमशील विचार से-व्‍यवहार से
खेत काटकर आई औरतों ने अँजुरी भर-भर
जल पिया और नदी को सदानीरा रहने का दिया असीस
तदर्थ चूल्‍हों में कहीं रोटियाँ पक रही हैं
कहीं बलक रहा है दाल-भात
आलू भुन रहे हैं आदिम आँच में अद्‌भुत सुगन्ध के साथ
अपने घाट पर अन्‍न-गन्ध से
नदी भी नहा उट्‌ठी है पोर-पोर
घाट के गूलर-जामुन दरख़्तों की छायाएँ
हँसी-मज़ाक और सहकार से हैं आबाद
जिनका रोटी-पानी हो गया
बाँह का तकिया और गमछे का बिस्‍तर बना
डूबकर सो रहे हैं बिना बेंचे अपने छोड़े !

गनीमत है कि इस पहाड़ी नदी पर
अभी पड़ी नहीं किसी कुबेर की दीठ !

गेंहूँ-कटाई की ऋतु है यह
चहुँओर महुवा फूल की महक भी उठ रही है
दिशाएँ धूप के नशे में हैं !

रेत कलमुँहे बर्तनों का मुँह चमका रही है
अपने पानी में सुस्‍ता रही है नदी
घाम से व्‍याकुल बादल
घाट के पानी में उतर चुके हैं !