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नदी / अनुलता राज नायर

नदी
मांग रही है मुझ से
मेरे आँसू
कि वो समंदर होना चाहती है
बिना समंदर से मिले.
नदी एक स्त्री है
हर स्त्री की तरह घायल
अपने जख्म खुद चाटती हुई...
जानती है जुटा लेगी
पर्याप्त खारापन
कई और स्त्रियों के साथ मिल कर,
जो बहा रहीं हैं अपने स्वेद और अश्रु

बाहरी आवरण के भीतर
सब की सब स्त्रियाँ खारी हैं
कि सबके दुःख और दर्द एक से है !!

निष्कंप बहती रही नदी
जब स्त्रियाँ डूबी नदी में,
और तट पर लगे वृक्ष कांप उठे
पुष्प वर्षा हुई!!