जिसने चाहा किया उसी ने
पार नदी को।
पूजा-उत्सव
सभी व्यवस्था
पहले जैसी
दान-दक्षिणा
सन्त-भक्त
गणिकाएँ विदुषी
युगों युगों से
रहे निरन्तर तार नदी को।
सभी कुशल तैराक
नहीं होते
नायक ही
विजयी होने की
उनकी इच्छाएँ
सतही
कभी न भाया
यह दैहिक व्यापार नदी को।
सहमति वाली नाव
असहमति वाले
पुल से
बालू के विस्तार
और
मटमैले जल से
समय दे रहा है
अजीब आकार नदी को।